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छोटे छोटे दुःख

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :255
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2906
आईएसबीएन :81-8143-280-0

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जिंदगी की पर्त-पर्त में बिछी हुई उन दुःखों की दास्तान ही बटोर लाई हैं-लेखिका तसलीमा नसरीन ....

समालोचना के आमने-सामने

 

(1)


जिज्ञासा में छपी ‘अब रखो न अँधेरे में, मुझे देखने दो-' मेरी रचना निबंध नहीं है और 'निबंध में जैसे पक्ष-विपक्ष के महत्त्वपूर्ण तथ्यों-तों का जोड़-घटाव करके, प्रतिपाद्य विषय को प्रतिष्ठित करना होता है'-इस रचना में नहीं की गई है, इसे कबूल करते हुए, मैंने भी इसे सिर्फ 'रचना' ही कहा है! रचना को निबंध कहने की धृष्टता मुझमें नहीं है। यह रचना 'तथ्य' 'तर्क' और 'सायास नियंत्रित भावोच्छ्वास' से उँसा हुआ नहीं है। यह भी कबूल करने में मुझे बूंद भर भी दुविधा नहीं है।

जिस देश के क़ानून में औरत को इंसान की मर्यादा नहीं दी जाती, विवाह, विवाह-विच्छेद, संतान के अभिभावक के तौर पर पुरुषों का प्राधान्य ही जाहिर होता है; जिस समाज में औरत, मर्दो से बराबरी के हक के लिए स्वीकृत नहीं है, उस समाज और देश में रहते हुए और जहाँ धर्म का कंकड़-पत्थर औरत पर ही बरसाया जाता है, जो धर्म यह कहता है कि मर्द की पसलियों से औरत का जन्म हुआ है, जो धर्म यह कहता है कि 'मर्द, औरत का कर्ता है, अल्लाह ने उन लोगों में से एक को, दूसरे पर श्रेष्ठता प्रदान की है' (सुरा निसा आयात 33)। वह धर्म जब राष्ट्रीय धर्म के रूप में प्रतिष्ठित हो, तब कोई औरत अगर पैरों में बेड़ियाँ पहने ऐसी रचना लिखे कि घर से बाहर निकलने का, उसका भी मन करता है, तो क्या वह लिंगवादी हो उठती है? वह 'वर्ग आधिपत्य' प्रतिष्ठा करना चाहती है? पिंजरे में कैद चिड़िया अगर उड़ना चाहती है, तो इसका मतलब क्या यह होता है कि वह अकेली ही उड़ेगी, कोई दूसरी औरत नहीं? जो लड़कियाँ पहले से ही उड़ानें भर रही थीं, तो उन लोगों को पिंजरे में कैद कर दिया जाए? मेरी राय में जिन लोगों ने उसे पिंजरे में कैद कर दिया है, उनके प्रति क्षोभ जाहिर करना, पिंजरे में कैद चिड़िया के लिए स्वाभाविक है। हाँ, अगर यह बात उसकी समझ में आ जाए कि उसे पिंजरे में कैद कर लिया गया है, यह पिंजरा उसकी अपनी जगह नहीं है, कम से कम आकाश की माँग करने का उसे सरासर अधिकार है!

उस रचना में क्षोभ है। घृणा भी कुछ कम नहीं है और किसी भी सच्चे और स्वस्थ इंसान में, अत्याचारी के प्रति क्षोभ और घृणा, युक्तिसंगत है यह बताने की बिल्कुल ज़रूरत नहीं है कि औरत को 'घरबंदी' किन लोगों ने बनाया है! कौन-से लिंगवाद ने उसे धकियाते-धकियाते हाँडी-कलसी में लूंस दिया है, बच्चे तैयार करने की मशीन बना दिया है, किस लिंगवाद ने उसकी देह के सौंदर्य और पति-गृहस्थी को निवेदित होने को उसकी अहम खूबी मान ली है। यह भी बताने की ज़रूरत नहीं है।

शेख मिजान ने लिखा है-'ऐसी कुल एक औरत को दिखाने से काम चल जाता, जो किसी एक भी मर्द से ज़्यादा सबल, कठोर, साहसी और निर्लज्ज हो।' यह जुमला लिखने की एक वजह है। उन्होंने यह जुमला इसलिए लिखा क्योंकि मैंने लिखा है- 'औरत मात्र ही कमजोर, कोमल, डरपोक और लज्जाशीला नहीं है।' उन्होंने यह समझाना चाहा है कि 'औरत मात्र' में सारी औरतें सिमट आती हैं और इस बात से वे सहमत नहीं हैं। एकाध अपवाद हो ही सकते हैं और उन्होंने ऐसे ही एकाध अपवाद का उदाहरण माँगा है। लेकिन मैंने यहाँ मर्दो से तुलना करते हुए, 'औरत मात्र'-ये दो शब्द इस्तेमाल नहीं किए हैं। उन्होंने खुद ही आगे बढ़कर यह तुलना लाद दी है और मैंने तो यह भी नहीं लिखा हैं कि कोई भी औरत दुर्बल, कोमल, डरपोक, लज्जाशीला नहीं है। अधिकांश पुरुष, यहाँ तक कि पुरुषतंत्र को धारण करने वाली, कुछेक औरतें भी यही सोचती हैं कि औरत मात्र ही दुर्बल होती हैं। वे लोग समूची औरत जात को इन विशेषणों से विभूषित करना चाहती हैं और यह सच नहीं है, यही मैंने स्पष्ट करने की कोशिश की है। जैसे पुरुषों में दुर्बल और डरपोक होते हैं, उसी तरह औरतों में भी! इसलिए डरपोक या लज्जाशील होने का दोष, एकतरफा.औरतों पर नहीं लादना चाहिए। चूँकि मैंने कोई उदाहरण नहीं दिया कि स्वप्ना नामक लड़की, दुलाल नामक पुरुष से ज़्यादा कठोर, सबल, साहसी है। इसलिए उन्होंने लिखा है कि यह एक उदाहरण है! जैसे कोई तैरना न जाने और पानी में डूब मरे, उसी तरह उन्होंने उसे उदाहरण समझ लिया। हालाँकि इसमें तैरना न जानने का नवजात शिशु के लिए कोई सवाल ही नहीं उठता! यह तैराकी से संबंधित मृत्यु भी नहीं है, यह शरीर-विज्ञान का मामला है! गायनाकोलॉजी प्रैक्टिस करते हुए, मैंने खुद देखा है कि जन्म के समय नॉर्मल, ऑब्स्ट्रक्टेड और सिजारियन  के जरिए पैदा होने वाले शिशुओं में लड़कियों के बचने की संख्या ज़्यादा होती है। ! सिर्फ नवजात शिशओं की बात नहीं है, अगर अनजान आदमी के तौर पर भी. शेख मिजान साहब खोज-खबर लेकर देख सकते हैं कि उम्रदार औरतें भी फुसफुस, दिल दिमाग के रोग की उतनी शिकार नहीं होतीं, जितने पुरुष! दिल, फुसफुस और दिमाग, बदन के अहम अंग हैं। औरत के अहम अंग अगर सबल होते हैं, तो मेरा सवाल है कि समाज के चंद मर्द अगर औरत को जो दुर्बल प्रमाणित करना चाहते हैं, वह किसी नॉन-अहम के जरिए ही न? नॉन-अहम मांसपेशियों की ताकत को उन्होंने मर्द की शक्ति को उदाहरण के तौर पर समझाने की कोशिश की है। पेशियाँ सबल होने की कई-कई वजह होती हैं। जन्म से ही लड़कियों में कम आहार की आदत डाली जाती है। आहार में कार्बोहाइड्रेट की मात्रा ज़्यादा होती है, प्रोटीन की मात्रा नहीं के बराबर! उन्हें हाथ-पाँव फैलाकर खेलने के लिए मैदान नहीं दिया जाता। जैसे लडकों को दिया जाता है। पष्टि पानेवाली. व्यायाम करने वाली किसी भी लड़की की मांसपेशी, अपुष्ट और कसरत न करनेवाले लड़कों से ज्यादा शक्तिशाली होगी। शेख मिजान अगर इसका उदाहरण चाहें, तो मेरा जवाब है कि उदाहरण वे खुद तैयार कर लें। किसी लड़के को घर में बिठाकर, उसे जूठा-कूठा खिलाकर बड़ा करें और लड़की को सैकड़ों तरह की कसरत कराएँ। आमिष खिलाएँ, उनकी नज़रों के सामने इसका ज्वलंत उदाहरण तैयार होने में ज़रा भी वक्त नहीं लगेगा। असल में यह सच है कि मर्द और औरत में प्राकृतिक फर्क तो होता है, लेकिन इसी वजह से कोई सबल या दुर्बल नहीं होता; योग्य-अयोग्य भी नहीं होता। यह योग्यता-अयोग्यता तो समाज के ठेकेदारों द्वारा लादे गए नियम, रीति-नीति, आहार और कामकाज के फैसलों के जरिए रची-गढ़ी गई है।

मैंने तथ्य ठूँसकर रचना को निबंध नहीं बनाना चाहा। आदिम युग के औरत-मर्द छीन-झपटकर जीव-जन्तुओं का गोश्त खाते थे। जैसे यह बात सच है। वैसे ही यह भी सच है कि औरत जब गर्भवती होती थी और शिकार के लिए नहीं जा पाती थी, इसलिए उसे संग्रह का काम करना पड़ा और शिकार का काम मर्द ने लिया और इस मौके का फायदा मर्दो ने तभी उठाया, जब उनके हाथों में अस्त्र आया। अस्त्रों के रौब-दाब की वजह से वह जो समूची समाज-व्यवस्था मर्दो के पक्ष में चली गई, आज तक उसी के पक्ष में है। किसी ज़माने में मातृतांत्रिक समाज ने आज पुरुषतांत्रिक समाज का रूप ले लिया है। बनैले जन्तुओं में भी नर-जन्तु शिकार पर जाते हैं और मादा-जन्तु अपने गर्भ की रक्षा करती हैं। लेकिन इसका यह मतलब कदापि नहीं है कि नर-बाघ की तुलना में बाघिन कुछ कम ताकतवर होती है। बाघिन अकेले ही अपने निजी अंचल में निवास करती है, अकेले ही अपने लिए खाना जुटाती है, सिर्फ गर्भावस्था में वह शिकार का जिम्मा नर-बाघों को देती है और चूँकि उसे नर-बाघों पर भरोसा नहीं होता, इसलिए अपने बच्चे को जन्म देते ही, वह बच्चे के जन्मदाता, नर-बाघ को खदेड़ देती है। अगर वह नर-बाघ को खदेड़े नहीं, तो वह उसके बच्चे को खा जाता है। जो भरोसा जन्तुओं को नहीं है, वह भरोसा इंसान ने अर्जित किया है। इसलिए उसने समाज की रचना की। लेकिन इस समाज में पर्याप्त फाँकीबाजी है, क्योंकि यह कोई वर्गहीन समाज नहीं है। पुरुष और दौलतमंद लोगों ने अपना आधिपत्य, बड़े कायदे से समाज के ऊँचे तबके में बहाल कर दिया है। इंसानों में अब समता-ममता नहीं रही, इसलिए इंसानों के दिल से लिंग और वित्त का फ़र्क दूर नहीं हुआ। शेख मिजान ने शायद 'शक्तिमान' शब्द के इस्तेमाल के जरिए, मांसपेशियों के ज़ोर पर बल दिया है। अब पेशियों की ताकत के दम पर राज्य और इंसानों पर जय करने का नियम नहीं है। 'शक्तिमान' शब्द का प्रयोग करके सिर्फ पुरुषों को ही गौरवान्वित क्यों किया जाता है? उन्होंने लिखा है-'मुमकिन है, नारी, पुरुष के समान बलशाली प्रमाणित न हुई हो, लेकिन इसके बावजूद समाज में ज़रूरत के खाद्य का तीन चौथाई हिस्सा नारी ही जुटाती थी।' जो प्राणी समाज का तीन-चौथाई भोजन जुटाती हो, अगर वह बलशाली न हो, तो कौन होगा? बल-विचार की जिम्मेदारी किस पर थी? जो प्राणी एक-चौथाई भोजन जुटाकर अपने को बलवान कहे, आखिर किस दम-खम पर? मेरा अंदाज़ा है कि ऐसा वह अस्त्र के ज़ोर पर करता था। इंसान के तौर पर बराबरी के हक़ के सवाल पर, मैं यह जानना चाहती हूँ कि औरत को यह प्रमाण क्यों देना होगा कि उसमें सामर्थ्य और योग्यता है? वह भी इंसान है, क्या यह परिचय ही उसके समान अधिकार पाने के लिए काफी नहीं है?

शेख मिजान जिस किसी भी प्रसंग में यह जानना चाहते हैं कि ये तथ्य मुझे कहाँ से मिले। नारी विवेक, बुद्धि द्वारा परिचालित होती है, ममता और प्यार धारण करने की क्षमता, उसमें अधिक है। उन्होंने यह जानना चाहा है कि यह तथ्य मझे कहाँ से मिला। यह तथ्य मैंने मानव-जीवन से लिया है। उन जनाब को क्या इसके विपरीत कोई तथ्य मिला है? मुझे ये तथ्य कहाँ से मिले, यह पूछने के बजाय अगर वे इसके विपरीत तथ्य खड़ा कर पाते, तो यह लग सकता था कि मैंने कहीं भूल की है। तथ्य के लिए मैं सिर्फ किताबों पर ही निर्भर नहीं करती। सिर्फ पोथी के तथ्यों के सहारे मेरी सोच आगे नहीं बढ़ती। मैं अपनी विवेक, बुद्धि और तजुर्बे से भी यह समझ लेती हूँ कि औरत ममता और प्यार धारण करने की ज़्यादा क्षमता रखती है। इम्पीरिकल ऑब्जर्वेशन में भी मैंने देखा है कि औरत में सहनशक्ति और धैर्य ज़्यादा होता है। गर्भावस्था में बुद्धि बढ़ाने की जिस बात को लेकर शेख मिजान ने सवाल उठाया है। उसके जवाब में यह कहा जा सकता हैं कि परिवर्तित परिस्थिति की वजह से उसकी बुद्धि का विकास हो ही सकता है। प्रकृति विज्ञान में भी विभिन्न कम्पेनसेटरी मैकेनिज्म मौजूद है।

इसी प्रसंग में शेख मिजान ने लिखा है, 'अगर कोई पुरुष, किसी नारी से अपनी संतान चाहता है, तो उसमें सहयोगिता की जिम्मेदारी पहले पुरुष की ही होती है।' मेरा सवाल है कि पुरुष, नारी से अपनी संतान क्यों चाहेगा? यह क्या किसी किसान की तरह खेत से शस्य माँगने जैसा है? या कोई मिल-मजदूर, स्विच दबाकर, मशीन से कपड़े माँगने जैसा है? बच्चा अकेले पुरुष का क्यों होने लगा? जिस औरत ने नौ महीने सात दिन अपनी कोख में शिशु को धारण किया है, उसे जन्म दिया है, उस शिशु पर किसका अधिकार ज़्यादा है? औरत का या मर्द का? फर्ज़ करें, औरत के हिस्से में ज़्यादा न भी डाला जाए, अगर मैं बराबरी का ही पक्ष लूँ तो क्या आज के समाज में हल्का-सा भी बराबरी का अधिकार विराज करता है? पितृतांत्रिक समाजव्यवस्था ने क्या माँ के परिचय और अधिकार की कहीं भी प्रतिष्ठा की है? पति-पत्नी में विवाह-विच्छेद होने पर, सात साल से ज़्यादा उम्र के बच्चों पर माँ का हक़ नहीं होता। पुरुष के लिए नारी बच्चे पैदा करेगी। इसलिए पुरुष उसे सहयोग देंगे। शेख मिजान के मुताबिक, इसमें नारी के लिए गौरवहीनता जैसी कोई बात नहीं है! औरत के लिए इससे बढ़कर गौरवहीनता और क्या होगी कि औरत, मर्द को बच्चा उपहार देगी और इस बावत उसे सहयोग मिलेगा। लेकिन यूँ जबर्दस्ती गले पड़कर मर्द पर यह अहसान करने की, औरत को ज़रूरत क्या है? औरत को शिशु रचना अपने लिए करना होगी। वह कोई अनाज खेत तो नहीं है कि मर्द उसमें बीज-वपन करें और मौसम आने पर उसकी फसल का आनंद लें। औरत भी इंसान है! वह गर्भ धारण करेगी। वह अगर किसी को अपने शिशु के पिता के रूप में परिचय देना चाहे, तो दे; न चाहे, तो न दे। वह खुद अपने को और प्रकृति को एक अदद मानव-संतान उपहार देगी। अगर वह किसी प्राणी के हाथों बंधक हो जाए, तो वह ज़रूर क्रीतिदासी बनकर रह जाएगी।

योग्यता या दक्षता मुताबिक कोई काम या दायित्व निभाने में औरत-मर्द में फर्क करना बेतुकी बात है। शेख मिजान का कहना है कि पुरुष-प्रधान समाज-व्यवस्था अब तक यही करती आई है। परुष-प्रधान समाज-व्यवस्था ही औरत-मर्द के फर्क की निर्माता है और पिछले रिकॉर्ड का हिसाब-किताब भी जो दिखाता है, वह भी औरत की अवमानना ही दिखाता है। लेकिन मेरा कहना है कि यह जो कहा जाता है कि औरत योग्य नहीं है, यह बात सही नहीं है। नारी बेशक योग्य है। लोग जो यह कहते हैं कि औरत दक्ष नहीं है, यह भी ठीक नहीं कहते। नारी पूरी तरह दक्ष भी है! कभी-कभी तो वह अपने कर्ता-पुरुष से भी ज़्यादा योग्यता और दक्षता दिखाती है। मेरे इस आवेदन का अर्थ, लिंगवाद की प्रतिष्ठा करना नहीं है, अस्तित्व की रक्षा है! जिसका अस्तित्व ही अस्वीकार्य है। वह भला लिंगवाद की प्रतिष्ठा क्या करेगी? पुरुष-प्रधान समाज औरत का कोई भी पृथक अस्तित्व स्वीकार नहीं करता, वहाँ अस्तित्व की रक्षा के लिए, औरत की योग्यता या दक्षता की बात उठाई जाती है, तो वह भी लिंगवाद के उद्देश्य से ही-ऐसा कुछ सोचना भी एक किस्म की पुरुष-प्रधान मनोवृत्ति है। वैसे बांग्ला में एक कहावत है-'चोर का मन, पुलिस-पुलिस!' इस मामले में यह कहावत भी फिट बैठती है!

(2)


परिमाप-यंत्र किसके हाथ में है? किसी की परिमिति या अपरिमिति का निर्णय कौन करेगा? अकेले अगर शेख मिजान ही यह मापक-यंत्र लिए बैठे रहें, तो क्या यह पुरुष-नियंता का स्वरूप ही स्पष्ट नहीं करता? पुरुष हमेशा से ही माप-जोख करते रहे हैं। औरत के कंठ-स्वर की सीमा, उसके चलने-फिरने, बातें करने, हँसने-दौड़ने की सीमा! उसी माप-यंत्र से शायद शंख मिजान ने भी मेरी परिमितिबोध को लेकर सवाल उठाया है। मेरी रचना में वेंटिलेटर, पिंजड़ा, बकरी का झूटा वगैरह की जो उपमा दी गई है, उन्होंने उसका भी उल्लेख किया है। 'प्रबंध' में (शुरू-शुरू में तो उन्होंने यह साबित करने की कोशिश की है कि यह रचना प्रबंध ही नहीं है, लेकिन यहाँ तक आकर उन्होंने भी इस रचना को निबंध ही कह डाला) क्या एलीगोरी नहीं चलती, शेख मिजान? यह किसने कहा है कि एलीगोरी सिर्फ कविताओं में ही चलती है, निबंध में नहीं? निबंध की संज्ञा तैयार करने की जिम्मेदारी किसकी है? संज्ञा क्या बदलती नहीं? या पुरुष-आधिपत्य की तरह ही अड्डा गाड़कर जमे हुए, इन तमाम संज्ञाओं में भी वे कोई बदलाव नहीं चाहते?

बेगम रुकैया को समय का प्रतीक मानकर उन्होंने जो सवाल किया है उस पर मैं चकित हूँ। बंगलादेश के अशिक्षित, ज्ञान-बुद्धि वर्जित, चेतनहीन, कुछ ही लोग इस किस्म की बातें करते हैं कि इस देश में औरत की आज़ादी का सिलसिला आराम से जारी है या औरत की स्थिति में पहले से कहीं ज़्यादा विकास हुआ है। मेरा सवाल है कि बेगम रुकैया के जमाने में बंगलादेश में औरत की जो स्थिति है, उसमें बाहरी तडक-भडक के अलावा क्या वाकई कोई विकास हआ है? एक सौ बारह वर्ष बाद भी क्या देश में बाल-विवाह, वधू हत्या, तलाक और बहु-विवाह का अत्याचार नहीं है? औरत की अशिक्षा की स्थिति में क्या कोई सुधार आया है? पुरानी मान्यताएं ही क्या बहुत ज़्यादा बढ़ी नहीं हैं? मसलन औरत को पर्दे में रहना होगा। पर्दा अब सिर्फ गाँवों में ही नहीं, नागरिक रीति से औरतों के बदन पर सज गया है। इस्लामी देशों से आए हुए तरह-तरह की डिज़ाइनों के बुर्कों से समूचा हाट-बाज़ार पट गया है। स्कूल, कॉलेज यूनिवर्सिटी में लड़कियाँ-औरतें, यहाँ तक कि मेडिकल में पढ़नेवाली छात्राएँ भी आपादमस्तक हँकी हुई, काले बुर्के से सिर्फ दो आँखें भर झलकाते हुए, सड़कों पर चलती-फिरती नज़र आती हैं। पर्दे की तरफ झुकाव दिनोंदिन बढ़ रहा है! अभी उसी दिन सिलहट के छातकछड़ा गाँव में मौलानाओं ने व्यभिचार के गुनाह पर, नूरजहाँ नामक एक लड़की के नाम फतवा जारी कर दिया और एक गड्ढा खोदकर, उसमें उसे खड़ी करके उस पर कंकड़-पत्थर बरसाकर, उसे मार डाला। सातक्षीरा के कालिकापुर गाँव में प्यार करने के जुर्म में, सोलहसाला फिरोज़ा के नाम, मौलानाओं। ने एक सौ झाड़ मारने का फतवा जारी किया। उस पर झाडुओं की झड़ी लगा दी गई और फिरोज़ा मर गई। इस तरह कितनी ही औरतें गाँव-शहर में मर रही हैं। कितने ही पति अपनी बीवियों का गला घोंटकर मार डालते हैं, दाँव कटारी से धज्जी-धज्जी कर डालते हैं। फाँसी पर झुला देते हैं। मौलानाओं के फतवों से आज गाँव के गाँव कलुषित हो रहे हैं। हम तक मौत की कितनी ख़बरें पहुँचती हैं? कितनी फाँसी, एसिड फेंकने के कितने केस दहेज न देने की वजह से निर्यातन की कितनी खबरें, हम जान पाते हैं? अगर कोई अखबार बड़ी मेहरबानी दिखाते हुए, ये खबरें छापने को आग्रही हो तभी लोगों को कुछ दिनों हो-हल्ला मचाने का मौका मिलता है। पारिवारिक कानून से शरिया की गंध अभी दूर नहीं हुई है; अभी भी काबिननामा में औरत को तलाक देने का हक़ तभी मिलता है, जब तलाक देने के हक़ के बारे में, निकाहनामे में छपे खानों से बाहर, अतिरिक्त रूप से लिख दिया गया हो। वर्ना उसे तलाक देने का हक नहीं होता। आज भी अनगिनत शिक्षित (1) औरत के काबिननामा में तलाक देने के हक़ का जिक्र नहीं होता। बेगम रुकैया के ज़माने में मर्द को बहु-विवाह के लिए, बीवी की अनुमति ज़रूरी नहीं थी। सन् 1961 के पारिवारिक कानून में बहु-विवाह के लिए बीवी की अनुमति ज़रूरी कर दी गई। उस वक्त से अब तक बस, यही उन्नति हुई है कि असल में बहु-विवाह में कोई बाधा नहीं है। सिर्फ अनुमति भर लेना होगी। इस समाज में औरतें, पति के घर में लगभग नौकरानी की भूमिका निभाती हैं। शेख मिजान दो-एक अपवाद का उल्लेख कर सकते हैं। लेकिन हमें यह भी याद रखना ज़रूरी है कि अपवाद कभी उदाहरण नहीं बन सकता। मैंने अपनी रचना में लिखा है-'मर्द डोर में बँधी औरत का भी स्वाद पाना चाहते हैं और डोर टूटी औरत का भी स्वाद पाना चाहते हैं!'–शेख मिजान ने मेरे इस जुमले की इस तरह से आलोचना की है-'तमाम शरीफ लोग, समस्त मर्द जात ही यहाँ मुजरिम है।' असल में शेख मिजान यह कहना चाहते हैं कि समूची मर्द जात इस तरह की हरकत नहीं करती। यानी कुछ मर्द ऐसे हैं, जो औरत-मर्द के बराबरी के हक में विश्वास करते हैं। जो लोग विवेकवान, तार्किक, ईमानदार और सहनशील हैं, वे लोग बेशक आज के समाज में व्यतिक्रम हैं। इस नज़रिए से भी तो यही बात दोहराई जा सकती है कि अपवाद कभी उदाहरण नहीं बन सकता।

शेख मिजान ने लिखा है कि रमना पार्क, शाम ढलने के बाद किसी पुरुष के लिए भी सुरक्षित नहीं है। वे शायद यह समझाना चाहते हैं कि चूँकि वह जगह पुरुष के लिए भी सुरक्षित नहीं है। इसलिए औरत के लिए सुरक्षित होने का सवाल ही नहीं है। लेकिन जिस अर्थ में वह जगह पुरुष खतरा-मुक्त नहीं है वह अर्थ औरत पर लागू नहीं होता। पुरुष के लिए इस वजह से सुरक्षित नहीं है क्योंकि छिनताई का खतरा है। छिनताई तो खैर औरत के साथ भी हो सकती है। लेकिन अपहरण, बलात्कार, सेक्सुअल हमला क्या पुरुष के साथ घटता है? इस देश में? मुझे अफसोस है कि उन्होंने सिर्फ उसी स्थिति को संकटजनक कहा 'जिस स्थित में पलटन के फुटपाथ पर सबह दस बजे भी अकेली औरत के चलने-फिरने में बलात्कार-अपहरण की शिकायत होने की सामूहिक संभावना है।' मैंने यह बात नहीं कही कि सुबह दस बजे भी औरत अगर अकेली आती-जाती है, तो उसे बलात्कार का शिकार होना पड़ता है। लेकिन दिन के वक्त किसी क़िस्म का अपहरण या बलात्कार की घटना नहीं घटती। यह भी सच नहीं है। ऐसे हादसे भी होते हैं। अभी उसी दिन स्वास्थ्य विभाग मंी ड्यूटी के बाद, गौरी रानी दास नामक एक औरत, महारवाली के स्वास्थ्य-दफ्तर में आई। दफ्तर से घर लौटते हुए रास्ते में स्वास्थ्य-निदेशक के ड्राइवर ने अपने चेले-चामुंडों के साथ गौरी का अपहरण किया और सबने मिलकर, उसके साथ बलात्कार किया। इसी तरह एक औरत वेश्यालय से भागकर अपने घर जा रही थी। उसे भी मीरपुर में भरी दोपहर के वक्त सामूहिक बलात्कार का शिकार होना पड़ा। दिन के उजाले में भी औरत को जिबह करके नदी में बहा दिया जाता है; पीठ में छुरा घोंप दिया जाता है; गला घोंटकर मार डाला जाता है। ये घटनाएँ अगर रात के वक्त घटती हैं, तो शेख मिजान को लगता है कि स्थिति संकटजनक नहीं है। सिर्फ दिन के वक्त घटें, तभी संकट की बात है! लेकिन अगर घटना घटती है, तो दिन क्या, रात क्या? उन्होंने खुद कबूल किया है कि कोई लड़की या औरत रात एक बजे अकेली बाहर निकलती है, तो उसका बलात्कार का शिकार होना निश्चित है! यही क्या संकटजनक स्थिति का उदाहरण है? उन्होंने इन सब घटनाओं को संकटजनक स्थिति क्यों नहीं कहा। मेरा यही सवाल है! किसी औरत को अगर रात-बिरात घर से निकलना ही पड़े तो उसे अपहरण या बलात्कार का शिकार क्यों होना पड़ेगा।

शराफत से ज़रा बाहर गई नहीं कि उस औरत को 'वेश्या' कहकर गाली दी जाती है, यह बात शेख मिजान मंजर नहीं करते। शोभन सीमा के बाहर जाकर, बँधे-बँधाए वक़्त के अंदर घर लौट आने से, क्या किसी औरत को सिर्फ 'अभद्र' ही कहा जाता है? फर्ज़ करें एक लड़की की सीमा अपना स्कूल या कॉलेज है! जिस लड़की ने स्कूल-कॉलेज की दहलीज पार कर ली, उसके लिए कर्मक्षेत्र और जो बेरोजगार हैं उनके लिए दो-एक रिश्तेदारों के घर और दो-एक मार्केट-आमतौर पर लड़कियों के अभिभावक उन्हें इसी तरह बाँध देते हैं। अगर वही लड़की, बँधी-बँधाई सीमा लाँघकर यानी कॉलेज, रिश्तेदारों का घर या कर्मक्षेत्र में न जाकर, कहीं और चली जाए और नपे-तुले वक्त के बाद लौट आए, फर्ज करें, दो-तीन दिनों बाद वह घर लौटे, तो क्या उसे सिर्फ 'अभद्र' कहा जाता है? जहाँ तक मैं जानती हूँ कि ऐसी औरत को 'नष्ट औरत', 'बुरी औरत', 'वेश्या' कहा जाता है! लेकिन बिल्कुल इसी तरह कोई लड़का अगर किसी अज्ञातवास में रहकर, दो दिनों बाद घर लौटे, तो उसे भावुक, कवि, उड़न-छू बोहेमियन कहा जा सकता है, हद से हद उसे 'अभद्र' कहेंगे। लेकिन उसे 'नष्ट लड़का', 'बुरा लड़का' या 'पतित लड़का' हरगिज नहीं कहा जाता है। अभद्र और वेश्या कभी भी समानार्थक शब्द नहीं हैं।

शेख मिजान ने लिखा है, 'चबूतरे, रास्ते या रेस्तराँ में अकेले पहुँचने या बैठने से लोग उस पर वेश्या होने का शक नहीं करते। हाँ, खासतौर पर दिन या रात के किस हिस्से में, एक लड़की कहाँ, किस भंगिमा में खड़ी है या बैठी है, वह ज़रूर महत्त्वपूर्ण है।' मुझे ताज्जुब होता है कि कौन-सी भंगिमा वेश्या की नहीं है। यह कैसे समझ में आता है? समय, भंगिमा, स्थान क्या वेश्याओं के लिए सुनिश्चित है? वेश्या के अलावा क्या और किसी औरत को वह भंगिमा, वह स्थान, वह समय ग्रहण करने का हक नहीं है? फर्ज़ करें, दिन-रात के हिस्से में वह रात का वक्त है; समय आठ या नौ या दस बजे, एक अकेली लड़की, रमना पार्क के किनारे, त्रिभंगी भंगिमा में खड़ी है, तो लोग ज़रूर यही सोचेंगे कि यह पतिता की भंगिमा है। ठीक इसी तरह कोई लड़का, उसी समय, उसी स्थान पर, अगर उसी तरह की मुद्रा में खड़ा हो तो उसे किस नाम से पुकारा जाएगा? 'पतित'? बेशक नहीं!

दुर्विनीत और उद्धत शब्दों का प्रयोग न करके, शेख मिजान ने सुनम्य और साहसी शब्दों का प्रयोग किया है। उनका भी शायद यही ख्याल है कि बाकी सब संस्कारग्रस्त लोगों में, लड़कों के लिए 'दुर्विनीत' शब्द भले फिट लगे, मगर लड़कियों के संदर्भ में यह फिट नहीं बैठता। जैसे यह ख्याल आम है कि 'शर्मालु' विशेषण औरतों के लिए भले फिट हो, लड़कों के लिए बिल्कुल फिट नहीं बैठता।

दुर्विनीत शब्द का अर्थ है-अविनयी, उद्धत! असल में कोई लड़का अगर विनयी न हो, तो लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ता, बल्कि ‘साहसी' होने के तौर पर लोग उसकी वाहवाही करते हैं। लेकिन किसी लड़की या औरत का विनयहीन होने को समाज नेक नज़र से कतई नहीं देखता। उद्धत शब्द का अर्थ है-अविनीत, धृष्ट, स्पर्धित, दुर्दीत, गर्वित वगैरह! सुनम्य शब्द का अर्थ है-अनायास, स्वच्छन्द, आकर्षक! 'उदधत' शब्द की जगह 'सनम्य' शब्द लिखने के प्रस्ताव करके, लेखक ने अपनी हीन मानसिकता और पुरुष मनोभाव का परिचय दिया है, जो हमारे पिछड़े, अनग्रसर, कुसंस्कारग्रस्त समाज में प्रचलित है। कोई लड़की बेहद स्वाभाविक भाव से दुर्विनीत, दुर्दात, स्पर्धित हो सकती है, जैसा कि एक लड़का भी हो सकता है, लेकिन इस वजह से शेख मिजान ने जो कहा, 'दुर्विनीत या उद्धत भंगिमा के लिए किसी लड़के 'इतर' या किसी लड़की के 'वेश्या', होने का शक होगा, इसमें मुझे कोई अन्याय या बेतुकापन नजर नहीं आता।'-यह बात क्या किसी भी तरह से तर्कसंगत है? मैं उसे निश्चित तौर पर अन्याय ही कहूँगी, अगर वजह एक हो। फिर भी लड़के को तो 'इतर' भर कहकर छोड़ दिया और लड़की को 'वेश्या' ! जिस वजह से लड़कों को सिर्फ 'इतर' कहा जाता है, इसके लिए लड़कियों को 'वेश्या' क्यों कहा जाता है? मेरा सवाल यही है। इतर शब्द का मतलब होता है-नीच, अधम और 'वेश्या' शब्द का मतलब है, जो देह का धंधा करती है! गणिका! वारवधू! इन दोनों शब्दों का अर्थ कभी भी एक नहीं हो सकता। दुर्विनीत आचरण के लिए अगर इतर कहने की ज़रूरत पड़े, तो लड़के-लड़कियों, दोनों को ही 'इतर' कहा जाए।

शेख मिजान के साथ मैं और एक बात से असहमत हूँ, वह है, किसी भी लड़के को उसके दुर्विनीत या उद्धत आचरण के लिए 'इतर' कहकर गाली नहीं दी जाती। उसे मर्द का स्वभाव मान लिया जाता है। अपने इस आचरण के लिए कभी-कभी तो वह समाज में प्रतिभाशाली के तौर पर जाना-पहचाना जाता है। जो लोग औरतों को 'वेश्या' कहकर गाली देते हैं, शेख मिजान लिखते हैं कि वे लोग 'समाज में मूर्ख, इतर, दुर्वृत्त के तौर पर जाने जाते हैं।' झूठ वात! समाज में शिक्षित, भद्र, सज्जन, निहायत शरीफ आदमी के तौर पर जाना-माना जाने वाला इंसान भी मौका पाते ही औरतों को 'वेश्या' कहने से बाज़ नहीं आता। औरतें अगर समाज और धर्म द्वारा निर्देशित सीमा लाँघकर, जैसे ही बाहर जाती हैं, उन्हें यह अपवाद सुनना ही पड़ता है। समाज के ठेकेदार मर्द जैसे सीमा नाप देते हैं, शेख मिजान भी उन्हीं मर्दो में से हैं। सीमा का सवाल उन्होंने अपने अनजाने में ही उठाया है, क्योंकि औरतें अगर 'सीमा' लाँघ जाएँ, तो मर्द चाहे कितना भी बड़ा प्रगतिवादी हो, वह उसे 'बुरी' ही कहेगा।

(3)


'औरत मर्द के बिना क्यों घूमती फिरे-' समाज के अधिकांश लोगों के इस सवाल को ही, शेख मिजान ने तर्क बनाकर खड़ा किया है, यह बात, एक बार फिर उनके पुरुषतांत्रिक मनोभाव ही प्रकट करती है। मसलन उन्होंने लिखा है, 'कोई अकेला इंसान निहायत कमजोर होता है। दुर्वृत्त मर्द उसी कमजोरी का फायदा उठाते हैं। यह सच है कि अकेले चलने-फिरने के बजाय किसी बलवान मर्द का साथ, सुरक्षित होता है। कोई औरत हो तो विपत्ति में पड़ने की संभावना कम हो जाती है। मेरा ख्याल है कि शेख मिजान को समाज का चेहरा अच्छी तरह देखने का मौका नहीं। मिला। इस समाज में किसी मर्द को साथ लेकर चलना, सुरक्षित तो हो सकता है। लेकिन दो-दो औरतों का साथ चलना भी सुरक्षित है-यह सच नहीं है। अगर किसी बाघ के सामने किसी हिरन का पड़ना अगर जोखिमभरा है, तो दो-दो हिरन के सामने पड़ने से मुसीबत कुछ कम हो जाती है? या बाघ के मुँह से और ज़्यादा लार टपकने लगती है? (यहाँ बाघ और हिरन की तुलना, सामाजिक नज़रिए से की गई है, उसकी शक्ति या प्रकृति का विचार करते हुए नहीं)! एक और सवाल भी है, औरत को किसी बलवान मर्द के साथ क्यों चलना-फिरना होगा? अपनी सुरक्षा के लिए वह अकेली ही काफी क्यों नहीं है? यहाँ राज्य की क्या यह जिम्मेदारी नहीं है कि वह हर नागरिक की सुरक्षा का विधान करे? मर्द औरतों को लोभनीय खाद्य की तरह क्यों देखेगा? इस मानसिकता को बदलने के लिए समाज या राज्य, कोई जिम्मेदारी निभाता है? शेख मिजान ने लिखा है, 'चूंकि मर्द आमतौर पर बलवान होते हैं, इसलिए कोई मर्द साथी, उसे बेशक सुरक्षा दे सकता है।' उनकी यह बात नितांत बेतुकी है। मर्द किस नजर से ताकतवर है? समाज में सयोग-सविधा की ताकत के अलावा मर्दो में ऐसी कौन-सी ताकत है, जो औरतों से ज़्यादा है? इसके अलावा कोई भी ऐरा-गैरा मर्द औरत को सुरक्षा क्यों देगा? सुरक्षा का सवाल अगर उठा ही है, तो यह जिम्मेदारी देश की है कि वह औरत-मर्द को समान भाव से सुरक्षा दे। उन्होंने यह भी लिखा है कि समाज जो मर्दो पर नारी को निर्भर करना चाहता है, यह बात अगर साबित करना चाहूँ, तो मेरा तरीका बिल्कुल गलत है। बहरहाल, कौन-सा तरीका ठीक है और कौन-सा गलत, एक जुमले में, लेखक इस बारे में अपनी राय, बिल्कुल नहीं दे सकता, क्योंकि कहीं भी, कोई भी तरीका तय नहीं किया जा सकता। यह बात कभी भी ध्रुव सत्य नहीं है कि इस तरीके से अगर आगे बढ़ा जाए, तो 'प्रमाण' सही होगा, वर्ना नहीं! मर्द अगर साथ न हो, तो झंझट-झमेले झेलने होते हैं। उसका बयान देने से भी यह बात प्रमाणित नहीं होती कि मर्द पर औरत को निर्भर होने के लिए लाचार करने की चाह, कोई प्रमाण नहीं हो सकती।

'भय नारी का भूषण है-' यह जुमला लोकोक्ति के तौर पर भले ख़ास सम्मानित न हुआ हो। लेकिन सिर्फ इसी वजह से यह धारणा समाज में प्रचलित नहीं है, यह बात भी सही नहीं है। 'इतनी रात को बाहर नहीं निकलूँगी, डर लगता है।' यह जुमला न कहकर, अगर कोई लड़की यह कहे, 'जुलूस गुज़र रहा है। चलो, निकल पढ़ें!' या 'पति की अनुमति की क्या ज़रूरत, जाना है, जाऊँगी'। लेकिन समाज में कोई उसे 'भली औरत' कहेगा, वह 'भषण' है। ऐसा कोई भी कबल करेगा, ऐसा मुझे बिल्कुल नहीं लगता। शेख मिजान ने लिखा है, 'जितने दिनों तक समाज में पुरुष-दुर्वृत्त मौजूद रहेंगे, उतने दिनों, पुरुष के मुकाबले, औरत को चलने-फिरने से डरना होगा; उसे ज़्यादा सावधान रहना होगा।' मैं पूछती हूँ, क्यों? पुरुष-दुर्वृत्तों के लिए कानून की व्यवस्था अगर कठोर कर दी जाए, तो औरतों को डर-डरकर क्यों चलना होगा? फिर राज्य क्यों है? संविधान क्यों है? मानवाधिकार क्यों है? एक नागरिक को, दूसरे नागरिक से डरना क्यों होगा? प्रकारान्तर से यह क्या किसी औरत के नागरिक अधिकार का लंघन नहीं है?'

किसी औरत को डरने के लिए कुछेक और भी अतिरिक्त वजहें होती हैं।' शेख मिजान के इस वक्तव्य का मैं विरोध करती हूँ। किसी औरत के संदर्भ में 'अतिरिक्त.विषय' से उनका मतलब अगर औरत नर्म या नाजुक अंगों से है, तो मर्द के भी कमज़ोर अंग का भी जिक्र करना ज़रूरी है, सिर्फ अंग्रेजी में 'सेक्ट्रम' और देशी भाषा में 'अंडकोष' कहते हैं, इस पर अगर चोट लगे, तो मर्द पल भर में बेहोश हो जाते हैं। मर्द को भी इस वजह से अतिरिक्त डर होना चाहिए। लेकिन उन्हें यह डर-भय बिल्कुल नहीं है। क्योंकि इसका चलन नहीं है। चलन तो औरत के अगों पर आघात करने का है। उस हालत में मर्द अगर जरा-जीर्ण, पंग, अपाहिज भी हो, तो उसे कोई हल्का-सा धक्का भी नहीं देगा, बल्कि उसके हुंकार से औरत नतसिर दासी ही बनी रहेगी। इसे कहते हैं, सिस्टम के प्रति सिर झुकाना! सिस्टम के खिलाफ प्रतिवाद करने पर, औरत पर प्रचंड दबाव डाला जाता है। ऐसे में बहुतेरी औरतें यह खतरा मोल नहीं लेना चाहतीं और चूँकि वे लोग ख़तरा मोल नहीं लेतीं।

इसलिए समाज उन्हें सैकड़ों तरह से पुरस्कृत करता है। पुरस्कार का लोभ, हर कोई संवरण नहीं कर पाता।

सबल हमेशा से ही दुर्बल पर हमलावर होते हैं। लेकिन इसीलिए मर्द को सबल घोषित करने की मुझे कोई वजह समझ में नहीं आती। इंसान-वह मर्द हो या औरत-व्यक्ति के तौर पर सवल या दुर्बल हो सकता है। लेकिन लिंग के आधार पर नहीं। समाज के मुट्ठी भर मर्दो ने ज़ोर-ज़बर्दस्ती यह गलतफहमी खड़ी कर ली है कि 'पुरुषमात्र ही सबल होता है।' इन तमाम धारणाओं को निर्मूल करके, समाज में समता का बोध फैलाना होगा।

शेख मिजान ने इस बात से इनकार नहीं किया है कि औरत के साथ मर्द का संपर्क भोग, वंशरक्षा और तीसमारखाँ बनने के लिए नहीं है। उन्होंने यह सब अस्वीकार करते हुए कुछेक जुमले और जोड़े हैं, 'स्नेह, श्रद्धा, प्रेम-प्यार, औरत-मर्द के रिश्ते में यह सब भी मौजूद होते हैं।' हाँ मौजूद होते हैं। इस बात से मैं भी इनकार नहीं करती, लेकिन इनमें थोड़ी-सी करुणा भी मिली होती है। मसलन कोई पिता अगर कहे, 'अहा, लड़की बनकर पैदा हुई है! अभागिन लड़की है! इसे थोड़ा-बहुत प्यार-दुलार लूँ।' या कोई बेटा कहे, 'अहा, मेरी माँ ने तो जिंदगी भर दुःख-तकलीफ उठाकर मुझे या हम लोगों को पाला-पोसा, अब वह कहाँ जाए? जितने दिनों जिंदा है, उसे रोटी-कपड़ा दे ही दूं-' या भाई कहे, 'अहा, बहन ब्याहकर पता नहीं किसके घर जाएगी; पता नहीं किस नर्क में पड़ेगी, इससे तो बेहतर है जितना हो सके छिटपुट उसे कुछ देता रहूँ।' या पति कहे, 'अहा, विचारी मेरे हुक्म मुताबिक चलती है, इसे जब, जैसे चाहता हूँ, पा लेता हूँ; मेरा बच्चा अपनी कोख में धारण करती है, जन्म देती है, लालन-पालन करती है, बेचारी है तो आखिर मेरी ही चीज़ ! मैं भी ज़रा इसकी देखभाल कर दूं।' लेकिन इसके बाद भी पिता, पुत्र, भाई और पति की करुणामिश्रित स्नेह-श्रद्धा, प्रेम-प्यार के साथ-साथ औरत पर अधिकार ज़माना, ज़ोर-जबर्दस्ती करना, जुबान और शरीर की ताकत दिखाना कम नहीं हुआ।

शेख मिजान की माँ-बहन, बीवी-बेटी जो साज-सिंगार करती हैं, यह बताते हुए, वे शायद यह समझाना चाहते हैं कि वे लोग किसी ग्राहक की उम्मीद में नहीं सजतीं। तब वे लोग क्यों सजती हैं? किस वजह से किसी लड़की को अपने चेहरे पर रंग-रोगन चढ़ाना पड़ता है? वह इसीलिए सजती है न कि वह देखने में अच्छी लगे? उसे अच्छी क्यों लगना होगा, मेरा यही सवाल है। उन साहब की माँ-बहन सामाजिक ग्राहकों की उम्मीद में सजती हैं। उनके पिता, जीजा और वे खुद भी सामाजिक ग्राहक ही तो हैं। ये ग्राहक औरतों को खाना-कपड़ा देते हैं और सामाजिक परिचय प्रदान करते हैं। बदले में औरतें, अपने ग्राहक की सैकड़ों आशा-आकांक्षाएँ पूरी कर रही हैं। बेटी जो इन दिनों अपने माथे पर बिंदी लगाने लगी है, असल में वह खुद नहीं लगाती। वह बिंदी लगाना सीख रही है, उसे सिखाया जा रहा है।

उसे इसकी तालीम दी जा रही है कि इस तरह बिंदी लगाई जाती है, इस तरह कानों में बुंदे, हाथों में चूड़ियाँ, गले में माला पहनी जाती है; इस तरह गालों में रूज लगाई जाती है। यह सब करने से वह खूबसूरत लगेगी! अगर वह खूबसूरत दिखेगी, तो लोग उसे पसंद करेंगे? लोग उसे पसंद करेंगे, तो उसका विवाह हो जाएगा? विवाह हो जाएगा, तो उसका नारी-धर्म सार्थक हो जाएगा। बस, इतना भर ही! अब तो डेढ़ साल की बच्ची को भी बेड़ियाँ पहनाई जा रही हैं। अपने को बेशकीमती सामग्री बनाने के कायदे-कानून, उनके दिमाग में भी ढूंसे जा रहे हैं।

(4)


औरतों को किस मैदान-पार्क में, किस फुटपाथ पर, रात कितने बजे चलना चाहिए। इसका कोई भद्रजनोचित हिसाब, लेखक के पास शायद मौजूद हो। तभी उन्होंने बार-बार समय और स्थान का उल्लेख किया है। उन्होंने लिखा है- 'दुनिया किसी भी देश के सभी मैदान-पार्क, घाट, फुटपाथ, रात-बिरात को अकेली किसी औरत के लिए तो दूर की बात, दिन-दुपहरिया को भी दो या अधिक मर्दो के लिए भी सुरक्षित नहीं है।' दिन-दुपहरिया दो या अधिक मर्दो के लिए जो सुरक्षित नहीं है, इसके पीछे राजनैतिक, अर्थनैतिक, सामाजिक वजह होती है, लेकिन औरत के लिए इन सब कारणों के बाहर भी, एक और कारण भी होता है-शारीरिक! इसी में मुझे आपत्ति है! शेख मिजान गलती कर बैठे हैं। प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को चूँकि देहरक्षी की ज़रूरत होती है, उन्होंने उनकी सुरक्षाहीनता के साथ आम औरत की सुरक्षाहीनता को मिलाकर सरासर भूल की है। जिस वजह से 'पुरुष राष्ट्रपति' सुरक्षित नहीं हैं, उसी वजह से क्या कोई आम औरत भी सुरक्षित नहीं है? शेख मिजान ने खुद ही कबूल किया है कि औरत अगर किसी अपराध की शिकार हो जाए, तो ऐसा सामग्रिक कानून-शृंखला के कारण तो होता ही है, पुरुष आधिपत्यवादी मानसिकता की वजह से भी घट सकता है। शेख मिजान चाहे किसी भी प्रसंग को लेकर बहस करें लेकिन अंत में वे भी कबूल करते हैं कि ये सब अक्सर ही पुरुष-आधिपत्यवाद की वजह से भी घटता है। यह बात भी वे ज़रूर समझ गए होंगे कि मेरा क्षोभ, पुरुष आधिपत्यवाद को लेकर है!

उन्होंने यह तो कबूल किया है कि किसी औरत को किसी निर्जन में बैठी देखकर, आवारा छोकरे उत्पात मचाते हैं। उन्होंने यह सवाल उठाया है, 'आवारा छोकरों की समस्या क्या पुरुष आधिपत्यवाद की समस्या है या समाज के कानून-श्रृंखला की परिस्थिति की समस्या है?' अगर इसमें पुरुष आधिपत्यवाद न होता, तो आवारा महिलाएँ भी जन्म लेतीं। लोग पार्क या मैदान में लड़के को अकेला बैठा देखकर, उस पर कौतूहल की नज़र डालेंगे, उल्टे-सीधे फिकरे कसेंगे, उसे धकियायेंगे, पत्थर फेंकेंगे। लेकिन ऐसा होता नहीं। घूमने-फिरने वाली पतिताओं को अगर उसे आवारा औरत समझ लिया जाए तो आवारा मर्दो को भी, इसी श्रेणी में डालकर, 'भ्रमणशील पतित' कहा जाए। लेकिन समाज क्या उन लोगों को 'पतित' कहेगा? जो लोग 'पतिता' की उम्मीद में, शाम से ही रमना के फुटपाथ पर भीड़ लगाए रहते हैं, तो उन लोगों को ‘पतित' क्यों नहीं कहा जाता? अखबारों में पतिताओं की तस्वीर तो छपनी है, उनकी करुण जीवनी भी प्रकाशित होती है। लेकिन पतितालय जानेवाले किसी पतित की जीवनकथा, यहाँ तक कि उसकी तस्वीर भी कहीं नहीं छापी जाती। घूमती-फिरती पतिताओं को पकड़-पकड़कर पुलिस जेल भर देती है, लेकिन इन सब 'भ्रमणशील पतित' लोगों में से कोई कभी लॉकअप में नहीं पहुँचता।

शेख मिजान ने बार-बार गलती की है, मैं कोई भी नारी तांत्रिक समाज या राष्ट्र व्यवस्था नहीं चाहती। मैं मानवतांत्रिक समाज-व्यवस्था चाहती हूँ। बलात्कार के लिए पूरी सुरक्षा देने का मतलब यह नहीं है कि हर औरत के लिए अंगरक्षक की व्यवस्था की जाए। राष्ट्र के नियम-कानून तो रहेंगे ही, साथ ही हर औरत को शिक्षित, स्वावलंबी बनाना होगा, लड़कों के लिए भी शिक्षा और स्वावलंबन ज़रूरी है! औरत की अवमानना करे, ऐसे कानून समाज और राष्ट्र में बहाल तबीयत से विराजमान हैं, उन्हें जड़ से उखाड़ फेंकना होगा। समूचे देश में ऐसे आधुनिक कानून प्रतिष्ठित किए जाएँ, जो औरत मर्द को बराबरी का हक दें। शेख मिजान ने देश की राष्ट्र-व्यवस्था के प्रति खास असंतोष नहीं किया है या टाल-मटोल की मुद्रा में एक तरह से कबूल किया है, उस देश में जातिसंघ के नारी के ऊपर से सकल 'वैषम्य विलोप की दलील को भी ख़ास अनुमोदन नहीं मिला है। जिन धाराओं को अनुमोदन नहीं मिला है, उनमें शामिल हैं-उत्तराधिकार, विवाह, विवाह-विच्छेद, संतान का अभिभावकत्व वगैरह में औरत मर्द को बराबरी का हक़ ! सरकार का कहना है कि ये धाराएँ मंजूर नहीं की जा सकतीं, क्योंकि ये सब इस्लामी शरिया कानून से मेल नहीं खातीं। देश में शरिया के साथ-साथ, अगर संगत क़ानून कायम न किए गए, तो और किसी आजादी के बारे में भले सोचें, बेशक यह औरत की आजादी नहीं होगी।

शेख मिजान एक अनुसिद्धांत पर पहुँचे हैं-'समाज में जब तक अपराध घटने के मौके विद्यमान रहेंगे, उतने दिनों चलने-फिरने में औरत की सुरक्षा, पुरुष के बराबर करना, कतई संभव नहीं है।' यह निहायत गैर-जिम्मेदाराना मंतव्य है। दुनिया में सभी कुछ संभव है। पहले ज़माने में तो माँ-बेटे, पिता-बेटी, भाई-बहन में यौन-संपर्क हुआ करते थे। सभ्यता क्या इंसान को इस स्थिति से निकालकर, किसी नई स्थिति तक नहीं लाई है? उनका कहना है कि चूंकि अन्यान्य अपराध घट रहे हैं। इसीलिए औरतों पर पुरुष का निर्यातन घट रहा है। लेकिन मैं बाकी सब आम अपराधों के साथ नारी-निर्यातन को हरगिज शामिल नहीं कर सकती। आदिम, असभ्य युग में नारी-हत्या हुआ करती थी, अभी भी होती है, इस वजह से हत्या, चोरी, छिनताई वगैरह अपराध बंद होने पर ही नारी-निर्यातन बंद होगा, इस तसल्ली पर मैं भरोसा क्यों करूँ? यह भी पुरुषतांत्रिक समाज का कोई नया प्रलोभन है; औरत को बहलाने-फुसलानेवाली कोई लोरी! हत्या, चोरी, खून, राहजनी वगैरह अपराधों के साथ लैंगिक अपराध को भी जोड़ दिया गया है।

शेख मिजान ने अमेरिका की किसी छात्रा की असुरक्षा का जिक्र किया है! लेकिन इसके जरिए मेरे किसी भी वाक्य की युक्ति को काटा नहीं जा सकता; क्योंकि मैंने यह बात कहीं नहीं कही कि अमेरिका में लड़कियाँ हर तरह से स्वाधीन हैं। उनपर किए जाने वाले निर्यातन का अर्थ यह हरगिज नहीं है कि नारी-स्वाधीनता का मामला निरा अर्थहीन और युक्तिहीन है। अमेरिका अगर अपने नागरिकों को संपूर्ण सुरक्षा न दे सके, तो इसके लिए दोषी नारी-स्वाधीनता नहीं है, बल्कि अमेरिका की राष्ट्र-व्यवस्था है।

सुबह-दोपहर रात पार्क के किनारे, फुटपाथ मैदानों में अकेले घूमने-फिरने को शेख मिजान ने अति तुच्छ भाव से देखा है। लेकिन यह मामला कहीं से भी तुच्छ नहीं है। आपात् नज़र से देखें, तो ऐसा लग सकता है कि औरत के लिए इतनी तरह की माँग और ज़रूरतें हैं, उन सबको वाद देकर यह घूमने-फिरने का चाव नितांत मध्यवित्त शौक है। खैर भले यह मध्यवित्त शौक हो या रूमानियत, यह मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है। यह तुच्छ अधिकार ही मुझे वसूल करना होगा। समाज अगर शुद्ध और न्यायी न हो तो यह अधिकार वह किसी भी औरत को नहीं देगा और यह जो अपनी मन-मर्जी से घूमने-फिरने का मामला है, वह काफी हद तक सिम्बॉलिक यानी प्रतीकात्मक है।

लेखक ने काफी लंबे अर्से तक विदेशों में पढ़ाई-लिखाई की है। इसलिए वे देश की कई स्थितियों से अनजान हैं या फिर यह उनकी अल्पज्ञता है। उन्होंने लिखा है-'पुलिस और कानून के प्रहरी विभाग के लोग अगर सुरक्षा दे सकें, तो यही नज़र आएगा कि एक-दो नहीं, ढाका विश्वविद्यालय की सैकड़ों लड़कियाँ चाँदनी रातों में, सुहरावर्दी उद्यान या रमना पार्क में सैर कर रही हैं।' शेख मिजान की जानकारी के लिए, मैं अर्ज करूँ कि शाम सात बजे तक, विश्वविद्यालय के तमाम छात्रावासों का गेट बंद हो जाता है। लड़कियाँ अगर चाहें भी तो सुहरावर्दी या रमना में चाँदनी रातों के सौंदर्य का आनंद लेने के लिए घूम-फिर नहीं सकतीं। वे लोग भी इस प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद उठाएँ, उन लोगों को मुर्गी के दरबे में कैद रखने का नियम ख़त्म कर देना होगा। वैसे भी एक नियम के साथ सैकड़ों उपनियम जुड़े होते हैं। इन सबको एक-एक करके जड़ से उखाड़ फेंकना होगा। इसी तरह, ये तमाम नियम खत्म करते-करते एक औरत के उद्यान से 'नियमों के तमाम साँप बेनिशान हो जाएँगे।

(5)


समूचा समाज औरत का चरम अपमान करता है। इस्लाम धर्म ने औरत को मर्द की दासी बना डाला है। हमारा समाज या राष्ट्र इस धर्म के खिलाफ जुबान नहीं खोलता। अधिकांश मर्द यह सोचते हैं कि औरत भोग की चीज़ है। इसे सजा-सँवारकर, थोड़ा-बहुत लिखना-पढ़ना सिखाकर, पुरुष की रसना तृप्त करने के लिए खूबसूरत 'माल' बना दिया जाए। औरत अगर आकर्षक दिखेगी तो पुरुष उस पर तरस खाएगा। पुरुष की मेहरबानी में ही नारी जीवन की सार्थकता है। औरत की यह चरम दुर्दशा दूर करने के लिए हमें चरमपंथी बनना चाहिए। कोई आपके अंग-प्रत्यंग पर वार पर वार करता रहे, वार करनेवाले पर पलटकर चोट करने के बजाय पिन-पिनाकर रोने-सिसकने से, लोग-बाग औरत को शायद 'शरीफ औरत' भले कहें शायद यह भी कहें कि यह औरत चरमपंथी नहीं है, यह लड़की, औरत की तरह, लक्ष्मी बनी, बेचारी आँसू बहा रही है लेकिन यह सब स्तुति दरअसल किसी काम की नहीं होती। यह सब औरत को और ज़्यादा कमजोर, और ज़्यादा आलसी, अक्षम, पंगु बनाए रखने के पैंतरे भर हैं। चरमपंथियों से जंग करने के लिए, चरमपंथी ही बनना पड़ता है।



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    अनुक्रम

  1. आपकी क्या माँ-बहन नहीं हैं?
  2. मर्द का लीला-खेल
  3. सेवक की अपूर्व सेवा
  4. मुनीर, खूकू और अन्यान्य
  5. केबिन क्रू के बारे में
  6. तीन तलाक की गुत्थी और मुसलमान की मुट्ठी
  7. उत्तराधिकार-1
  8. उत्तराधिकार-2
  9. अधिकार-अनधिकार
  10. औरत को लेकर, फिर एक नया मज़ाक़
  11. मुझे पासपोर्ट वापस कब मिलेगा, माननीय गृहमंत्री?
  12. कितनी बार घूघू, तुम खा जाओगे धान?
  13. इंतज़ार
  14. यह कैसा बंधन?
  15. औरत तुम किसकी? अपनी या उसकी?
  16. बलात्कार की सजा उम्र-कैद
  17. जुलजुल बूढ़े, मगर नीयत साफ़ नहीं
  18. औरत के भाग्य-नियंताओं की धूर्तता
  19. कुछ व्यक्तिगत, काफी कुछ समष्टिगत
  20. आलस्य त्यागो! कर्मठ बनो! लक्ष्मण-रेखा तोड़ दो
  21. फतवाबाज़ों का गिरोह
  22. विप्लवी अज़ीजुल का नया विप्लव
  23. इधर-उधर की बात
  24. यह देश गुलाम आयम का देश है
  25. धर्म रहा, तो कट्टरवाद भी रहेगा
  26. औरत का धंधा और सांप्रदायिकता
  27. सतीत्व पर पहरा
  28. मानवता से बड़ा कोई धर्म नहीं
  29. अगर सीने में बारूद है, तो धधक उठो
  30. एक सेकुलर राष्ट्र के लिए...
  31. विषाद सिंध : इंसान की विजय की माँग
  32. इंशाअल्लाह, माशाअल्लाह, सुभानअल्लाह
  33. फतवाबाज़ प्रोफेसरों ने छात्रावास शाम को बंद कर दिया
  34. फतवाबाज़ों की खुराफ़ात
  35. कंजेनिटल एनोमॅली
  36. समालोचना के आमने-सामने
  37. लज्जा और अन्यान्य
  38. अवज्ञा
  39. थोड़ा-बहुत
  40. मेरी दुखियारी वर्णमाला
  41. मनी, मिसाइल, मीडिया
  42. मैं क्या स्वेच्छा से निर्वासन में हूँ?
  43. संत्रास किसे कहते हैं? कितने प्रकार के हैं और कौन-कौन से?
  44. कश्मीर अगर क्यूबा है, तो क्रुश्चेव कौन है?
  45. सिमी मर गई, तो क्या हुआ?
  46. 3812 खून, 559 बलात्कार, 227 एसिड अटैक
  47. मिचलाहट
  48. मैंने जान-बूझकर किया है विषपान
  49. यह मैं कौन-सी दुनिया में रहती हूँ?
  50. मानवता- जलकर खाक हो गई, उड़ते हैं धर्म के निशान
  51. पश्चिम का प्रेम
  52. पूर्व का प्रेम
  53. पहले जानना-सुनना होगा, तब विवाह !
  54. और कितने कालों तक चलेगी, यह नृशंसता?
  55. जिसका खो गया सारा घर-द्वार

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